चुनावी बांड: स्याही का खेल, लोकतंत्र का धब्बा!
ओह, कैसी विडंबना! अवैध चुनावी चंदे पर रोक लगाने के लिए बनाया गया चुनावी बांड योजना खुद ही असंवैधानिक घोषित हो गया! मानो स्याही का खेल हो, जहाँ काली स्याही से लिखी गई नीतियां, लोकतंत्र पर काला धब्बा बनकर उभरती हैं।
यह योजना सचमुच एक अनोखी करामात थी:
पारदर्शिता? भूल जाइए! गुमनाम दानदाताओं ने दान की गंगा बहाई, और जनता को सिर्फ अंधेरे में तालियां बजानी पड़ीं।
काला धन? हाँ, वो तो बहता ही रहा, बस रंग बदल गया - स्याही से रंगा हुआ!
निष्पक्ष चुनाव? खैर, सत्ताधारी दल के लिए तो यह योजना निश्चित रूप से फायदेमंद रही, बाकी सभी के लिए... सोचिए और खुद ही फैसला करिए।
लेकिन क्या यह सब सचमुच आश्चर्यजनक है?
क्या सचमुच किसी को विश्वास था कि यह योजना ईमानदारी का प्रतीक होगी?
क्या सचमुच किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि सत्ताधारी दल इसका फायदा उठाएगा?
नहीं, यह सब एक खुला खेल था, जहाँ जनता को बेवकूफ बनाया गया।
चुनावी सुधारों के नाम पर, सत्ताधारी दल ने अपनी सत्ता को मजबूत करने का हथियार बना लिया।
लोकतंत्र के स्तंभों को कमजोर करते हुए, उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पंख लगाए।
लेकिन यह खेल अब खत्म हो गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक घोषित करते हुए, लोकतंत्र की जीत सुनिश्चित की है।
यह एक नया अध्याय है, जहाँ हमें सच्चे चुनावी सुधारों की दिशा में आगे बढ़ना होगा।
यह समय है:
राजनीतिक दलों को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने का।
चुनावी चंदे की व्यवस्था में सुधार लाने का।
निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनावों की गारंटी देने का।
यह समय है, स्याही के खेल को खत्म कर, लोकतंत्र को चमकाने का!
यह समय है, बदलाव लाने का!
यह समय है, सचमुच में जवाबदेह सरकार बनाने का!
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